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रामराज्य में आदमी बाजारों में गुलाम की तरह बिकते थे।

राम के समय को तुम रामराज्य कहते हो। हालात आज से भी बुरे थे। कभी भूल कर रामराज्य फिर मत ले आना! एक बार जो भूल हो गई, हो गई। अब दुबारा मत करना।
रामराज्य में आदमी बाजारों में गुलाम की तरह बिकते थे। कम से कम आज आदमी बाजार में गुलामों की तरह तो नहीं बिकता! और जब आदमी गुलामों की तरह बिकते रहे होंगे, तो दरिद्रता निश्चित रही होगी, नहीं तो कोई बिकेगा कैसे ? किसलिए बिकेगा ? दीन और दरिद्र ही बिकते होंगे, कोई अमीर तो बाजारों में बिकने न जाएंगे। कोई टाटा,बिड़ला,डालमिया तो बाजारों में बिकेंगे नहीं। स्त्रियां बाजारों में बिकती थीं! वे स्त्रियां गरीबों की स्त्रियां ही होंगी। उनकी ही बेटियां होंगी। कोई सीता तो बाजार में नहीं बिकती थी। उसका तो स्वयंवर होता था। तो किनकी बच्चियां बिकती थीं बाजारों में ? और हालात निश्चित ही भयंकर रहे होंगे। क्योंकि बाजारों में ये बिकती स्त्रियां और लोग–आदमी और औरतें दोनों, विशेषकर स्त्रियां–राजा तो खरीदते ही खरीदते थे, धनपति तो खरीदते ही खरीदते थे, जिनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो, वे भी खरीदते थे! गजब की दुनिया थी! ऋषि-मुनि भी बाजारों में बिकती हुई स्त्रियों को खरीदते थे! ये रामराज्य था।

अब तो हम भूल ही गए वधु शब्द का असली अर्थ।
अब तो हम शादी होती है नई-नई, तो वर-वधु को आशीर्वाद देने जाते हैं। हमको पता ही नहीं कि हम किसको आशीर्वाद दे रहे हैं! रामराज्य के समय में, और राम के पहले भी–वधु का अर्थ होता था, खरीदी गई स्त्री! जिसके साथ तुम्हें पत्नी जैसा व्यवहार करने का हक है, लेकिन उसके बच्चों को तुम्हारी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा! पत्नी और वधु में यही फर्क था। सभी पत्नियां वधु नहीं थीं, और सभी वधुएं पत्नियां नहीं थीं। *वधु नंबर दो की पत्नी थी।* जैसे नंबर दो की बही होती है न, जिसमें चोरी-चपाटी का सब लिखते रहते हैं! ऐसी नंबर दो की पत्नी थी वधु। *ऋषि-मुनि भी वधुएं रखते थे!* और तुमको यही भ्रांति है कि ऋषि-मुनि गजब के लोग थे। कुछ खास गजब के लोग नहीं थे। वैसे ऋषि-मुनि अभी भी तुम्हें मिल जाएंगे। इन ऋषि-मुनियों में और तुम्हारे पुराने ऋषि-मुनियों में बहुत फर्क मत पाना तुम। कम से कम इनकी वधुएं तो नहीं हैं! कम से कम ये बाजार से स्त्रियां तो नहीं खरीद ले आते! इतना बुरा आदमी तो आज पाना मुश्किल है जो बाजार से स्त्री खरीद कर लाए। आज यह बात ही अमानवीय मालूम होगी! मगर यह जारी थी! आज का समय रामराज्य से बेहतर है।

*रामराज्य में शूद्र को हक नहीं था वेद पढ़ने का!
यह तो कल्पना के बाहर की बात थी, कि डाक्टर अम्बेडकर जैसा अतिशूद्र और राम के समय में भारत के विधान का रचयिता हो सकता था!* असंभव !!
खुद राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था–गरम सीसा, उबलता हुआ सीसा! क्योंकि उसने चोरी से, कहीं वेद के मंत्र पढ़े जा रहे थे, वे छिप कर सुन लिए थे। यह उसका पाप था; यह उसका अपराध था। और राम तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! राम को तुम अवतार कहते हो! और महात्मा गांधी रामराज्य को फिर से लाना चाहते थे। क्या करना है? शूद्रों के कानों में फिर से सीसा पिघलवा कर भरवाना है ? उसके कान तो फूट ही गए होंगे। शायद मस्तिष्क भी विकृत हो गया होगा। उस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना! शायद आंखें भी खराब हो गई होंगी। क्योंकि ये सब जुड़े हैं; कान, आंख, नाक, मस्तिष्क, सब जुड़े हैं। और दोनों कानों में अगर सीसा उबलता हुआ…! उबलते हुए शीशे की जरा सोचो! उबलता हुआ सीसा जब कानों में भर दिया गया होगा, तो चला गया होगा पर्दों को तोड़ कर, भीतर मांस-मज्जा तक को प्रवेश कर गया होगा; मस्तिष्क के स्नायुओं तक को जला गया होगा। फिर इस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना है! धर्म का कार्य पूर्ण हो गया।

रामराज्य में ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया कि राम ने धर्म की रक्षा की। यह धर्म की रक्षा थी! और तुम कहते हो, युधिष्ठिर जुआ खेलते हैं, फिर भी धर्मराज थे! आज किसी जुआरी को धर्मराज कहने की हिम्मत कर सकोगे ? और जुआरी भी कुछ छोटे-मोटे नहीं, सब जुए पर लगा दिया। पत्नी तक को दांव पर लगा दिया! एक तो यह बात ही अशोभन है, क्योंकि पत्नी कोई संपत्ति नहीं है। मगर उन दिनों यही धारणा थी, स्त्री-संपत्ति! उसी धारणा के अनुसार आज भी जब बाप अपनी बेटी का विवाह करता है, तो उसको कहते हैं कन्यादान! क्या गजब कर रहे हो! गाय-भैंस दान करो तो भी समझ में आता है। कन्यादान कर रहे हो! यह दान है? स्त्री कोई वस्तु है? ये असभ्य शब्द, ये असंस्कृत हमारे प्रयोग शब्दों के बंद होने चाहिए। अमानवीय हैं, अशिष्ट हैं, असंस्कृत हैं। मगर युधिष्ठिर धर्मराज थे। और दांव पर लगा दिया अपनी पत्नी को भी! हद्द का दीवानापन रहा होगा। पहुंचे हुए जुआरी रहे होंगे। इतना भी होश न रहा। और फिर भी धर्मराज धर्मराज ही बने रहे; इससे कुछ अंतर न आया। इससे उनकी प्रतिष्ठा में कोई भेद न पड़ा। इससे उनका आदर जारी रहा।


भीष्म पितामह को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था। मगर ब्रह्मज्ञानी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे! गुरु द्रोण को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था। मगर गुरु द्रोण भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे! अगर कौरव अधार्मिक थे, दुष्ट थे, तो कम से कम भीष्म में इतनी हिम्मत तो होनी चाहिए थी! और बाल-ब्रह्मचारी थे और इतनी भी हिम्मत नहीं? तो खाक ब्रह्मचर्य था यह! किस लोलुपता के कारण गलत लोगों का साथ दे रहे थे? और द्रोण तो गुरु थे अर्जुन के भी, और अर्जुन को बहुत चाहा भी था। लेकिन धन तो कौरवों के पास था; पद कौरवों के पास था; प्रतिष्ठा कौरवों के पास थी। संभावना भी यही थी कि वही जीतेंगे। राज्य उनका था। पांडव तो भिखारी हो गए थे। इंच भर जमीन भी कौरव देने को राजी नहीं थे। और कसूर कुछ कौरवों का हो, ऐसा समझ में आता नहीं। जब तुम्हीं दांव पर लगा कर सब हार गए, तो मांगते किस मुंह से थे? मांगने की बात ही गलत थी। जब हार गए तो हार गए। खुद ही हार गए, अब मांगना क्या है ? लेकिन गुरु द्रोण भी अर्जुन के साथ खड़े न हुए; खड़े हुए उनके साथ जो गलत थे।

*यही गुरु द्रोण एकलव्य का अंगूठा कटवा कर आ गए थे अर्जुन के हित में, क्योंकि तब संभावना थी कि अर्जुन सम्राट बनेगा। तब इन्होंने एकलव्य को इनकार कर दिया था शिक्षा देने से। क्यों? क्योंकि शूद्र था। एकलव्य को मौजूदा हालात उस समय के पसंद पड़े होंगे ? उस गरीब का कसूर क्या था ? अगर उसने मांग की थी, प्रार्थना की थी कि मुझे भी स्वीकार कर लो शिष्य की भांति, मुझे भी सीखने का अवसर दे दो ? लेकिन नहीं, शूद्र को कैसे सीखने का अवसर दिया जा सकता है !!!
मगर एकलव्य अनूठा युवक रहा होगा। अनूठा इसलिए कहता हूं कि उसका खून नहीं खौला। खून खौलता तो साधारण युवक, दो कौड़ी का। सभी युवकों का खौलता है, इसमें कुछ खास बात नहीं। उसका खून नहीं खौला। शांत मन से उसने इसको स्वीकार कर लिया। एकांत जंगल में जाकर गुरु द्रोण की प्रतिमा बना ली। और उसी प्रतिमा के सामने शर-संधान करता रहा। उसी के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा। अदभुत युवक था। उस गुरु के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा जिसने उसे शूद्र के कारण इनकार कर दिया था; अपमान न लिया। अहंकार पर चोट तो लगी होगी, लेकिन शांति से, समता से पी गया। धीरे-धीरे खबर फैलनी शुरू हो गई कि वह बड़ा निष्णात हो गया है। तो गुरु द्रोण को बेचैनी हुई, क्योंकि बेचैनी यह थी कि खबरें आने लगीं कि अर्जुन उसके मुकाबले कुछ भी नहीं। और अर्जुन पर ही सारा दांव था।

अगर अर्जुन सम्राट बने, और सारे जगत में सबसे बड़ा धनुर्धर बने, तो उसी के साथ गुरु द्रोण की भी प्रतिष्ठा होगी। उनका शिष्य, उनका शागिर्द ऊंचाई पर पहुंच जाए, तो गुरु भी ऊंचाई पर पहुंच जाएगा। उनका सारा का सारा न्यस्त स्वार्थ अर्जुन में था। और एकलव्य अगर आगे निकल जाए, तो बड़ी बेचैनी की बात थी। तो यह बेशर्म आदमी, जिसको कि ब्रह्मज्ञानी कहा जाता है, यह गुरु द्रोण, जिसने इनकार कर दिया था एकलव्य को शिक्षा देने से, यह उससे दक्षिणा लेने पहुंच गया! शिक्षा देने से इनकार करने वाला गुरु, जिसने दीक्षा ही न दी, वह दक्षिणा लेने पहुंच गया! हालात बड़े अजीब रहे होंगे! शर्म भी कोई चीज होती है! इज्जत भी कोई बात होती है! आदमी की नाक भी होती है! ये गुरु द्रोण तो बिलकुल नाक-कटे आदमी रहे होंगे! किस मुंह से–जिसको दुत्कार दिया था–उससे जाकर दक्षिणा लेने पहुंच गए! और फिर भी मैं कहता हूं, एकलव्य अदभुत युवक था; दक्षिणा देने को राजी हो गया। उस गुरु को, जिसने दीक्षा ही नहीं दी कभी! यह जरा सोचो तो! उस गुरु को, जिसने दुत्कार दिया था और कहा कि तू शूद्र है! हम शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते! बड़ा मजा है! जिस शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते, उस शूद्र की भी दक्षिणा स्वीकार कर सकते हो! मगर उसमें षडयंत्र था, चालबाजी थी। उसने चरणों पर गिर कर कहा, आप जो कहें। मैं तो गरीब हूं, मेरे पास कुछ है नहीं देने को। मगर जो आप कहें, जो मेरे पास हो, तो मैं देने को राजी हूं। यूं प्राण भी देने को राजी हूं।

तो क्या मांगा?
*मांगा कि अपने दाएं हाथ का अंगूठा काट कर मुझे दे दे!
जालसाजी की भी कोई सीमा होती है! अमानवीयता की भी कोई सीमा होती है! कपट की, कूटनीति की भी कोई सीमा होती है! और यह ब्रह्मज्ञानी! उस गरीब एकलव्य से अंगूठा मांग लिया। और अदभुत युवक रहा होगा, दे दिया उसने अपना अंगूठा!
तत्क्षण काट कर अपना अंगूठा दे दिया!
जानते हुए कि दाएं हाथ का अंगूठा कट जाने का अर्थ है कि मेरी धनुर्विद्या समाप्त हो गई। अब मेरा कोई भविष्य नहीं। इस आदमी ने सारा भविष्य ले लिया। शिक्षा दी नहीं, और दक्षिणा में, जो मैंने अपने आप सीखा था, उस सब को विनिष्ट कर दिया। रामराज्य की धारणा में एक बुनियादी भूल है।

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